उत्तर प्रदेश में ‘जाति वाला फैसला’… चुनावी नुस्खा या धार्मिक गोलबंदी?

उत्तर प्रदेश में जाति के नाम पर होने वाली रैलियों पर रोक लगा दी गई है. अब कोई भी राजनीतिक दल जाति के नाम पर रैली नहीं आयोजित कर सकता है. कुर्मी-कुशवाहा रैली या दलित-ब्राह्मण रैली, यादव-कुर्मी रैली, अहीर, जाट, गूजर, राजपूत रैली आगे से नहीं की जाया करेंगी. यही नहीं गाड़ियों पर भी कहीं ब्राह्मण, गूजर, जाट, क्षत्रिय या यादव नहीं लिखवा सकता. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्य नाथ सरकार ने यह आदेश इलाहाबाद हाई कोर्ट के उस फैसले के बाद जारी किया, जिसमें थानों में किसी रिपोर्ट में आरोपी की जाति का उल्लेख नहीं करने का निर्देश दिया गया था. हालांकि नंबर प्लेट पर जाति का उल्लेख न करने के आदेश पहले से हैं और इसकी अवहेलना करने पर दंड का भी प्रावधान है. मोटर वाहन कानून की धारा 179 (1) में इसे गैर कानूनी माना गया है.
मोटर वाहन कानून 179 (1) पहले से है
इसके बावजूद लोग और राजनीतिक दलों के कार्यकर्त्ता इस कानून की धज्जियां उड़ाते रहे हैं. जिस दल की सत्ता होती है, उस दल से जुड़े लोग अपनी जाति का उल्लेख गाड़ी के चारों तरफ करते हैं. अपनी पार्टी का झंडा लगाते हैं तथा हूटर और लाल बत्ती भी. पुलिस वाले देखते हैं पर राजनीतिक दलों का झंडा देख कर ऐसी गाड़ियों के मालिक को रोकने की कोशिश कभी नहीं करते. मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने 2017 में सत्ता पर आते ही निर्णय किया था कि किसी भी गाड़ी में न हूटर बजेंगे न बत्ती लगेगी. मगर इस पर अमल नहीं हो सका. जाति सूचक शब्द लिखा होने पर गाड़ी का चालान तो धारा 179 (1) के तहत भी किया जा सकता था. लेकिन इस पर अमल क्यों नहीं हो सका, इसका जवाब मिलना चाहिए.
न हूटर हट सके न बत्तियां
मोटर वाहन अधिनियम की धारा 179 (1) पूरे देश में समान रूप से प्रभावी है. मगर कभी भी जाति, धर्म सूचक स्टिकर हटवाए नहीं गए. यही नहीं साइड विंडो या पीछे के सीसे से कभी भी ब्लैक स्क्रीन भी नहीं हटाए गए. ऐसा लगता है जाति को अभिमान के साथ प्रकट करने में लोग गौरवान्वित महसूस करते हैं. निजी गाड़ियों पर भारत सरकार या उत्तर प्रदेश अथवा किसी भी प्रदेश की सरकार का स्टिकर लगवा कर लोग सरेआम लाल बत्ती जम्प करते हैं, गलत साइड से ओवर टेक करते हैं. टोल रोड्स पर दाईं तरफ वाली लेन पर कब्जा किए रहते हैं और पीछे से तेज रफ्तार आ रही गाड़ी को साइड तक नहीं देते. टोल रोड के बीच में आवारा पशु विचरण करते रहते हैं. टोल वसूलने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकारण (NHAI) आंख मींचे रहता है.
कानूनों का पालना जरूरी
राज्यों के एक्सप्रेस वे का हाल तो और बुरा है. एक्सप्रेस वे पर गाड़ियों की स्पीड 100 किमी निर्धारित है किंतु वाहन चालक 170-200 की स्पीड पर चलते हैं. इस कारण जाड़ों या बरसात में एक्सीडेंट्स होते रहते हैं. सरकारें और कानून का पालन कराने वाली अथॉरिटी अक्सर इस तरफ ध्यान नहीं देतीं. जो टोल फ्री नंबर दिए जाते हैं, वे उठते नहीं. एक्सप्रेस वे पर कोई गाड़ी अगर निर्धारित स्पीड पर भी जा रही हो तो भी वह दुर्घटना का शिकार हो ही जाती है. क्योंकि आगे किसी अवरोधक या डायवर्जन की पूर्व सूचना नहीं दी जाती. ऐसे में एकाएक ब्रेक लगाने से दुर्घटनाएं होंगी ही. देखा जाए तो न तो कभी कानून का पालन प्रभावशाली लोगों ने किया न स्वयं राज्य सरकारों ने कभी अपनी जिम्मेदारी महसूस की.
हाशिये पर पड़ी जातियों की उपेक्षा
सार्वजनिक स्थलों से जातीय स्मारक हटाने और जाति आधारित स्कूल/कॉलेज से जाति शब्द हटाने के कट्टर समर्थक थे चौधरी चरण सिंह. उन्होंने 1939 में संयुक्त प्रांत विधायक दल में एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसमें लोक सेवक के नामके आगे जाति का उल्लेख न करने को कहा गया था. सिर्फ अनुसूचित जातियों को अपना जवाब हां या ना में देना था, बाकी किसी की जाति का उल्लेख न करने का आग्रह था. लेकिन कांग्रेस ने फरवरी 1951 में तय किया कि पार्टी का कोई भी सदस्य किसी भी जातीय संस्था या संगठन से नहीं जुड़ेगा. लेकिन तब तक कांग्रेस ने एक ऐसा सॉलिड वोट बैंक तैयार कर लिया था कि उसे हाशिये पर पड़ी किसी भी जाति के वोटों की जरूरत ही नहीं थी. यही हाल कम्युनिस्ट दलों का भी था.
चौधरी चरण सिंह ने शिक्षण संस्थाओं से जाति नाम हटवाये
लेकिन चौधरी चरण सिंह ने जब कांग्रेस छोड़ी तब धरातल का पता चला. हालांकि संविद सरकार में मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने जाति आधारित शिक्षण संस्थाओं को जाति नाम जाहिर न करने का आदेश दिया. 1967 के बाद आगरा का नामी बलवंत राजपूत कॉलेज राजा बलवंत सिंह कॉलेज बना और कानपुर, लखनऊ के कान्य कुब्ज कॉलेज के नाम क्रमशः ब्रह्मानंद कॉलेज और जय नारायण कॉलेज हुए. इटावा का कुर्मी क्षत्रिय कॉलेज का नाम बदल कर कर्मक्षेत्र कॉलेज किया गया. शिकोहाबाद के अहीर क्षत्रिय कॉलेज का नाम आदर्श कृष्ण कॉलेज किया गया. उनकी संविद सरकार भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी का सहयोग था. उस समय उन्होंने BKD (भारतीय क्रांति दल) का गठन किया था.
चरण सिंह के उत्तराधिकारियों ने ही जातीय गोलबंदी की
मगर चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकारियों ने ही जातीय गोलबंदी की लेकिन जातिवाद के धुर विरोधी चौधरी चरण सिंह की विरासत संभालने वाले राजनीतिक दलों ने जातीय संगठनों के बूते ही अपने दलों का विस्तार किया. क्योंकि किसी भी दल के लिए जातीय गोलबंदी के सिवाय चुनाव जीतने का और कोई नुस्खा नहीं था. कांग्रेस जब उत्तर प्रदेश और बिहार से उजड़ी तो उसकी वजह थी उसके पास किसी भी जाति का आधार वोट का न होना. केंद्र में तो 2004 से 2014 तक किसी तरह इन्हीं जातीय गोलबंदी वाले दलों की मदद से सरकार में रही. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के पीछे हिंदू गोलबंदी हो गई और क्षेत्रीय दलों के भी परखचे उड़ गये. यूं भी जातीय गोलबंदी पर धार्मिक गोलबंदी भारी पड़ती है. अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने जातीय संगठनों की रैली पर रोक लगाई है, उसके पीछे हिंदू वोटों को बिखरने से रोकना भी है.
कांग्रेस भी जाति की राजनीति में
जिस कांग्रेस का नारा था, ‘न जात पे न पात पे, मुहर लगेगी हाथ पे!’ उसी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी भी जातीय गोलबंदी को सही मानने लगे हैं. जाति आधारित जनगणना का आग्रह उनका ही है. क्योंकि आज जाति का व्यूह इतना भयानक हो गया है कि बिना कुछ जातियों की भीतरी सतह तक पहुंचे भाजपा की धार्मिक गोलबंदी को तोड़ना लगभग असंभव है. भाजपा भी जाति की इस चरित्र को समझ रही है. GEN-Z युवा भी जाति के घेरे में कैद है. रील्स, इंस्टाग्राम और X तथा फेसबुक व यू ट्यूब पर जातीय गोलबंदी को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. जाति का यह स्वरूप भयानक होता जा रहा है. इस पर अंकुश जरूरी है लेकिन सबसे बड़ी बात है कि जाति नाम न लगाने और सार्वजनिक मंचों से नहीं जाहिर करने के नियमों में ढील कतई न बर्दाश्त की जाए.
विधायकों का जाति प्रेम
अभी कुछ दिनों पूर्व ही उत्तर प्रदेश में एक जाति विशेष के विधायकों ने अपना एक मंच बनाया था. मजे की बात कि इसमें भाजपा समेत सभी दल के उसी जाति के विधायक पहुंचे. धीरे-धीरे यह प्रक्रिया साहित्य, कला व पत्रकारिता के क्षेत्र में भी आने लगेगी. जो जाति स्वाभिमान आजादी के बाद से बोतल में बंद था. वह अचानक से बोतल का ढक्कन खुलने से प्रकट हो कर सोशल मीडिया पर आ गया. जब जातीय जनगणना होगी तब वह और निरंकुश रूप में आएगा. एक तरफ जाति आधारित जनगणना के प्रति घोर आग्रह और दूसरी तरफ उसे रोकने की कोशिश एक तरह का व्यतिक्रम है. मुख्यमंत्री का यह आदेश स्वागत-योग्य है लेकिन इसकी आड़ में लोग और जातीय खेल न खेलने लगेंगे इसके लिए लोक सेवकों को अपनी जाति के प्रति प्रेम को त्यागना होगा.